चाहे प्राचीन सभ्यता -संस्कृति को समझने के लिए आवश्यक होता है कि सर्वप्रथम उस समाज के सांस्कृतिक -सामाजिक इतिहास को जाने और समझें | प्राचीन काल में किसी समाज में धार्मिक विविधता का आभाव होने के कारण, सामान्यतः समाज का धार्मिक इतिहास ही उस समाज का सामाजिक- सांस्कृतिक इतिहास भी होता है ; यही 'मिथक' के रूप में प्रसिद्ध होते हैं ; भारतीय सन्दर्भ में इन्हे ''वैदिक एवं पुराणिक आख्यान '' कहा जाता है | यह मिथिकीय विवरण ही किसी संस्कृति-सभ्यता ओर समाज का प्राचीनतम इतिहास होता है | ये'' मिथिकीय वाङ्मय '' ही किसी प्राचीन सभ्यता के सामाजिक तथा संस्कृतिक 'उद्भव ,संरचना एवं विकास ' की इतिहास गाथा कहतें हैं |"प्राचीन मान्यताओं के अनुसार वह सकल ज्ञान जो चाहे श्रुत हो परन्तु लिपिबद्ध किया जासके अथवा पहले से ही लिपिबद्ध किया जाचुका हो 'वाङ्मय' की श्रेणी में आता है | विषय विशेषज्ञ चाहे जो कहते हों इस विवरण में न जा ; इस सन्दर्भ में जो वर्गीकरण मैं करता हूँ उसी का प्रयोग आगे यहाँ पर भी करूँगा |
"सम्पूर्ण वङ्मय को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है ",
[1] संहिता , [ 2 ] गाथा , [ 3 ] साहित्य
संहिता :- संहिता के अंतर्गत उपासना-पद्धति एवं कर्मकांड प्रक्रिया , उपासना के मन्त्र आदि आतें हैं| मेरे मान्यता तो यह है की राज्य-व्यवस्था एवं राज-धर्म अर्थात राजा अथवा शासक के कर्तव्य और अधिकार तथा सामाजिक-व्यवस्था के नियम भी इसी यानि कि संहिता की श्रेणी में में ही आयेंगे | " भारतीय सभ्यता के सन्दर्भ में तो काफी सीमा तक सत्य है | पुराणिक काल तक ,विशेष रूप से महाभारत काल के पहले तक ; इसके पूर्व तक राजा को राज्य और जनता का 'न्यासी ' {ट्रस्टी } माना जाता था और राज्य को जनता कि सामूहिक सम्पति माना जाता था |"
परन्तु महाभारत काल से इन-स्वीकृतियों में अन्तर आने लगा ,आने लगा क्या , आगया | इस समय राजा या राज्यधीश राज्य को अपनी सम्पति समझने लगे थे और यही कारण था कि राज्यों को द्यूत-क्रीडा में दावं तक पर लगा दिया गया { महा भारत कथा जो पुरु वंश के पारिवारिक संघर्षों का बृहत् विवरण एवं इतिहास है |
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